Below is an excerpt from Anand Gandhi's (Indian Film maker. His recent movie - Ship of Theseus) interview. A great soul I have heard of in the recent times. Complete interview is here: http://filamcinema.blogspot.in/2013/07/evolution.html
My impression:
How many people do we find today, who can think this way? Who give more importance to Collective Intelligence before the personal basic needs of food and shelter? Rare is this kind of an honest person.
Question:
आप कब तक संघर्ष करते रहेंगे इस तथ्य के साथ कि जिस क्षेत्र में आप हैं, उसमें पैसा तो आपको खींचेगा ही खींचेगा। कि भई एक एपिक बनानी है और फिलोसॉफिकल एपिक बनानी है, लेकिन पैसा चाहिए और वो ही दुकानदार आ जाएंगे जैसे ही आप इस बारे में सोचेंगे या बताएंगे। उसमें कैसे आप डिगेंगे नहीं, उसके लिए क्या जाब्ता किया है अब तक?
Answer:
आपकी बात बिल्कुल सही है। कई बार इस पड़ाव और दोराहे पर आकर मैं रुका हूं। ये पहली बार नहीं है। मैं 19 की उम्र से लिख रहा हूं। हर बार कोशिश की है कि जो मेरा उच्चतर उद्देश्य है... और ये बात भी है कि मेरा संघर्ष आसान होता गया है। ये अपनी बात पर जिद्दी होकर अड़ने से भी आसान हुआ है। जो अब से छह-सात साल पहले का संघर्ष था मेरा, वो आज नहीं है। चीजें आसान हुईं हैं। लोगों ने देखा है मेरा काम और कहा है कि हां यार, इसे पैसे दे दो, ये कुछ न कुछ कर लेगा। आज से 10-12 साल पहले मैं टेलीविज़न के लिए लिखता था। टेलीविज़न सीरियल लिखता था। तब लिखते-लिखते ये ख़्याल आया कि जो मैं कर रहा हूं उससे कहीं न कहीं अपनी समग्र बुद्धि (collective intelligence) को हानि पहुंचा रहा हूं। पहले ही हमारी कलेक्टिव इंटेलिजेंस पर सवाल खड़े हैं। पहले ही हमारे यहां पब्लिक डिस्कोर्स नहीं है। पहले ही हमारे यहां एक सामाजिक डिबेट नहीं है, एक वार्तालाप नहीं है। मुझे कहीं न कहीं लगने लगा कि जो कर रहा हूं वो गलत कर रहा हूं। जो कलेक्टिव इंटेलिजेंस है इस मुल्क की, उसे मैं छिछला कर रहा हूं, बेइज्जत कर रहा हूं और उस निर्मित सहमति को बढ़ाने में योगदान दे रहा हूं। तो मैंने वो काम छोड़ दिया। तब से मैंने नहीं किया है वो काम वापस। मैंने 19 की उम्र में लास्ट किया था, फिर कई ऑफर आए लेकिन कभी नहीं किया वापस। उसके बाद ऐसे वक्त भी आए जब बहुत ही गरीबी रही और लगा कि इससे अच्छा तो कर लेता। पर कहीं न कहीं वो फैसला ले पाया हूं और खुश होकर ले पाया हूं। आज से सात-आठ साल पहले जब मैंने टेलीविज़न छोड़ दिया था और कहा था कि अब कभी नहीं करूंगा टेलीविज़न तो मेरे आसपास दोस्त थे जो कर रहे थे। टेलीविज़न, कमर्शियल फ़िल्में कर रहे थे, ऐसी सभी चीजें कर रहे थे जिनसे मुझे सिर्फ सिरदर्दी ही नहीं थी बल्कि दुख भी था। मैं अपने सिद्धांतों की वजह से नहीं कर पा रहा था। जो सिर्फ मेरे सिद्धांत थे, उसमें कोई बहुत बड़ी महान बात नहीं कह रहा हूं। ये बस मेरे लिए जरूरी था। और मैंने कहीं न कहीं अपनी बोली लगाई कि यार मेरे सामने जिंदगी के ये 10 साल हैं जिनमें मैं खोज कर पाऊंगा, विचार कर पाऊंगा, एक्सप्लोर कर पाऊंगा, इन्वेंट कर पाऊंगा और अपने आप को एनलाइटन (प्रकाशमान) कर पाऊंगा, मैं घूम पाऊंगा, लोगों से मिल पाऊंगा, वो सब कर पाऊंगा जो मुझे करना है। मैं बेहतर कलाकार बन पाऊंगा, बेहतर इंसान बन पाऊंगा, बेहतर लोगों से मिल पाऊंगा। एक तरफ ये है और दूसरी तरफ ये है कि वो सब काम करता रहूंगा जो बाकी सब कर रहे हैं और अंत में मैं कुछ पैसे कमा लूंगा। तो मैंने जिदंगी के इन दस सालों की बोली लगाई दिमाग में। मैंने कहा क्या होगी इनकी बोली। पांच करोड़, सात करोड़, दस करोड़। सोचा, यार पचास करोड़ भी इसके लिए काफी नहीं हैं। बहुत ही हल्का लगा वो पचास करोड़। तो उसे मैं बहुत फायदा समझता हूं, खुशकिस्मती समझता हूं अपने लिए कि मैं वो ऐसा कर पाया। जो नहीं कर पाते हैं मैं उन पर कोई टीका-टिप्पणी नहीं कर सकता हूं क्योंकि उनमें बहुत सारे तो मेरे दोस्त ही हैं जो नहीं कर पाए। नहीं ले पाए वो फैसला। मेरी खुशकिस्मती थी कि ले पाया। कि मैं उस संघर्ष में से निकल आया। अभी जब पीछे मुड़कर देखता हूं तो मेरे पास वो दस साल का खजाना है जिसका हर एक दिन मैं जिया हूं। जिसके हर एक दिन में मैंने संशोधन किया है, प्रयास किया है। मैं घूमा हूं, बहुत ही अद्भुत लोगों के साथ उठा हूं बैठा हूं, मैंने चीजें इन्वेंट की हैं, मैं चीजें समझ पाया हूं। ये तो बहुत ही बड़ा खजाना है जिसके सामने आज की तारीख में मेरे पास पांच-सात करोड़ ज्यादा कम होते तो कोई फर्क नहीं पड़ता। और आज की तारीख में मेरे पास सबकुछ है। मेरे पास बढ़िया सा घर है, गाड़ी है, सब चीजें लोगों ने दे दी हैं। कहीं न कहीं वो फकीरी वाली पैदाइश और परवरिश है। मैं 14 साल की उम्र तक एक झोंपड़े में रहता था। उसकी वजह से कहीं न कहीं वो अपरिग्रह रहा है। चीजों को लेकर एक फकीरी रही है। खुशनसीब हूं कि वो मुझे मिली है। मैं चीजों के साथ आसानी से अटैच नहीं होता हूं। मेरे लिए चीजों को छोड़ना बहुत ही आसान होता है। - See more at: http://filamcinema.blogspot.in/2013/07/evolution.html#sthash.u9ZZiyAd.dpuf